HomeBreaking Newsबट सावित्री व्रत की परंपरा पर एक आधुनिक दृष्टिकोण”जब तपना ज़रूरी हो, तो रास्ता भी निकल ही आता है”रानीगंज से प्रदीप सिंह राठौर की कलम से 🖋️..
रानीगंज- बट सावित्री व्रत…एक ऐसी परंपरा, जिसमें तप है, आस्था है और स्त्री के प्रेम का वह अद्वितीय रूप जो हर बार खुद को त्याग कर पति की लंबी उम्र की कामना करता है।लेकिन जब विशाल वटवृक्ष घर से दूर हो और तपती ज़मीन पर नंगे पांव चलना संभव न हो, तब भी परंपरा रुकती नहीं। कुछ महिलाएं बाल वटवृक्ष की पूजा कर इस परंपरा को निभा रही हैं। यही प्रेम है, यही श्रद्धा है।रानीगंज में इस बार भी कुछ महिलाओं ने गमले में उगाए गए छोटे वटवृक्ष की पूजा कर व्रत निभाया। तप में कमी नहीं थी, पत्तियों की चुभन और सूखी टहनियों ने सावित्री के पदचिन्हों पर चलने का अनुभव पूर्ण कर दिया।लेकिन इसी परंपरा पर एक सवाल भी उठता है। आखिर हर बार स्त्रियाँ ही क्यों? हर उपवास, हर व्रत—पति की भलाई के लिए ही क्यों आरक्षित है? क्या पुरुष भी कभी स्त्री के स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए कुछ कर सकते हैं?”मैं परंपरा के विरोध में नहीं, लेकिन व्यवस्था पर प्रश्न जरूर करता हूँ,” लिखते हैं लेखक प्रदीप सिंह राठौर।”या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता…” नारी को शक्ति का रूप माना गया है, फिर क्यों वह हर बार तपस्या का केंद्र बनती है? यह विचार समाज के हर व्यक्ति को सोचने के लिए प्रेरित करता है।